भुगतान असंतुलन का दुश्चक्र

वीरेन्द्र खागटा : वैश्विक मंदी के भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ते असर को अब साफ-साफ महसूस किया जा सकता है। आर्थिक विकास दर तो पहले से ही कम होती जा रही है, रिजर्व बैंक की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक चालू खाते का घाटा पहली बार पांच फीसदी के पार चला गया है! जीडीपी के ढाई से तीन प्रतिशत तक यह घाटा सहन करने लायक है, पर साल की दूसरी तिमाही में यह बढ़कर 5.4 फीसदी हो गया, जबकि पिछले साल की इसी तिमाही में यह 4.2 प्रतिशत था।

जाहिर है, वस्तुओं और सेवाओं के आयात की तुलना में निर्यात तो घट ही रहा है, विदेशी पूंजी की आवक की तुलना में देशी पूंजी भी बाहर ज्यादा जा रही है। उदारीकृत अर्थव्यवस्था में ऐसी स्थिति से हम बच नहीं सकते, लेकिन चिंतनीय यह है कि ऐसी चुनौतियों के बीच आर्थिक मोर्चे पर जिस समझदारी का परिचय देना चाहिए था, उसका हमारे यहां अभाव दिखा है। न तो खेती को मजबूत करने की कोशिश दिखी, न महंगाई पर अंकुश लगाने की प्रतिबद्धता, मौद्रिक कवायदों के जरिये मूल्यवृद्धि पर नियंत्रण की कवायद भी विफल ही साबित हुई।

12वीं पंचवर्षीय योजना का जो मसौदा पिछले दिनों जारी हुआ, उसमें भी 8.2 से आठ फीसदी विकास दर हासिल करने का लक्ष्य तो रखा गया है, लेकिन इस बारे में कोई ठोस आधार नहीं कि यह दर कैसे हासिल होगी। जब इस साल की अनुमानित आर्थिक विकास दर 7.6 फीसदी से घटकर 5.7 से 5.9 प्रतिशत पर आ गई है, तो अंतरराष्ट्रीय आर्थिक परिदृश्य के सुधरे बिना अगले पांच साल में हमारी आर्थिक विकास दर कैसे मजबूत हो पाएगी? फिलहाल तो सरकार की पहली प्राथमिकता चालू खाते के घाटे को कम करना ही होना चाहिए, जिसकी सबसे बड़ी वजह सोने का बढ़ता आयात है।

मौजूदा वित्त वर्ष की पहली छमाही में विदेशी मुद्रा भंडार में मात्र 10.5 अरब डॉलर की बढ़ोतरी हुई, जबकि 20.25 अरब डॉलर का सोना आयात किया गया! इसलिए इसके आयात को हतोत्साहित करने की कोशिश करनी चाहिए। वर्ना चालू खाते का बढ़ता घाटा जल्दी ही रुपये को कमजोर कर सकता है। निर्यात बढ़ने की चूंकि फिलहाल कोई संभावना नहीं दिखाई देती, इसलिए आयात को यथासंभव कम करने में ही बुद्धिमानी है।

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