क्यों बिलावल पर फिदा है पाक मीडिया?

बेनजीर भुट्टो की बरसी के मौके पर राजनीतिक मैदान में उतरे बिलावल भुट्टो जरदारी पाकिस्तानी मी़डिया की सुर्खियों में छाए रहे। इस शुरुआत को पाकिस्तानी अखबार डेली टाइम्स ने कुछ यूं बयां किया, ‘ही केम, ही सॉ ऐंड ही कॉंकर्ड’।

पाकिस्तानी अखबार की ये सुर्खियां एक नई शुरुआत की ओर इशारा कर रही हैं जिसमें देश के सियासी दौर में एक नए ‘भुट्टो काल’ के आगाज का संकेत है। बिलावल और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) ने उनके राजनीतिक करियर की शुरुआत के लिए भी विशेष मौका चुना।

बिलावल की मां और पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की पुण्यतिथि पर सिंध प्रांत में उनके पुश्तैनी गांव गढी खुदा बख्श में उनकी राजनीतिक पारी की शुरुआत की घोषणा की गई। इस खास मौके पर देश भर की मीडिया की नजर ना पडे़ ऐसा नहीं हो सकता था।

मशहूर मां का बेटा
इस गांव ने कई राजनीतिक सफर को खत्म होते देखा है जिनमें पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फि़कार अली भुट्टो, उनके बेटे मुर्तजा और उनकी बेटी बेनजीर का सियासी सफर शामिल है। यह जगह इन तीन मशहूर राजनेताओं के अंतिम विश्राम स्थल के तौर पर जानी जाती है जो एक सक्रिय राजनीतिक करियर के दौरान मारे गए।

इस परिवार के नए खिलाड़ी की राजनीतिक शुरुआत के लिए गांव से जुड़ी यह कड़ी कारगर साबित होती नजर आ रही है। पार्टी का नेतृत्व करने की बिलावल की क्षमता पर भले ही सबकी अलग राय हो लेकिन मीडिया, राजनीतिक पंडित और सोशल मीडिया पर मौजूद आम पाकिस्तानी नागरिक उन्हें एक मशहूर मां के बेटे के रूप में ही देख रहे हैं।

मशहूर पत्रकार मजहर अब्बास ने एक्सप्रेस ट्रिब्यून में विस्तार से लिखा है कि राजनीति में बिलावल की शुरुआत उनकी तकदीर में लिखी है। अब्बास अपने कॉलम में लिखते हैं, ‘उन्होंने यह देखा था कि कैसे 18 अक्टूबर 2007 को उनकी मां पर हमला किया गया। बिलावल ने यह भी देखा कि वह कैसे डटी रहती थीं। 27 दिसंबर की घटना की वजह से राजनीति उनके लिए व्यक्तिगत तौर पर अहम हो गई।’

बढ़ गई हैं उम्मीदें
ऑक्सफोर्ड में पढ़ाई करने वाले बिलावल का सफर अभी शुरू ही हुआ है लेकिन निश्चित तौर पर उनकी तुलना उनकी मां बेनजीर भुट्टो और पिता आसिफ अली ज़रदारी से की जाएगी और यकीनन वह इससे बच नहीं पाएंगे। अपने लेख में अब्बास का तर्क है कि बिलावल को भी पूरा मौका दिया जाना चाहिए क्योंकि उनकी मां का राजनीतिक करियर भी तब शुरू हुआ था जब वह युवा थीं।

वह अपने पिता जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ कई विदेशी दौरों पर गई थीं जिनमें भारत-पाकिस्तान के बीच हुआ मशहूर शिमला समझौता भी शामिल है। भुट्टो ने इसी दौरान राजनीति के गुर सीखे। डेली टाइम्स का कहना है कि देश और बिलावल की पार्टी कई तरह की चुनौतियां झेल रही हैं खासतौर पर देश में चरमपंथी ताकतें बड़ी समस्या बनी हुई हैं।

अखबार लिखता है कि बेनजीर ने चरमपंथियों से लोहा लिया और आखिरकार उन्हें अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। बिलावल के लिए यह अच्छी शुरुआत हो सकती है कि वह अपनी मां की मौत की सही तरीके से जांच कराने की मांग अपनी पार्टी वाली सरकार से करें।

द न्यूज ने बिलावल की अच्छी उर्दू की भी तारीफ की है क्योंकि उन्होंने अपना ज्यादातर वक्त विदेश में बिताया है। लेकिन यह अख़बार उनके भाषण से संतुष्ट नहीं है।

युवाओं के प्रेरणास्रोत
युवा भुट्टो के पास देश के बड़े राजनीतिक परिवार का नाम जुड़ा है और उनके सिर पर पिता का हाथ भी है जो देश के राष्ट्रपति हैं। लेकिन अब यह अहम सवाल है कि क्या वह अपने मशहूर माता-पिता की छवि से इतर अपने बलबूते पाकिस्तानी युवा पीढ़ी को अपनी ओर आकर्षित कर पाएंगे?

टि्वटर के यूजर इस सवाल पर अलग-अलग राय रखते हैं। टीवी के एक एंकर शाहिद मसूद ने अपने ट्वीट में युवा आइकन बनने के लिए बिलावल की क्षमता पर सवाल उठाया है।

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