आधी-अधूरी तैयारी का नतीजा

जरूरतमंदों को सब्सिडी के बजाय नकदी देने की सरकार की जो महत्वाकांक्षी योजना अब अमल में आई है, वह न सिर्फ शुरुआती प्रचार-प्रसार से बहुत भिन्न है, बल्कि यह एक और उदाहरण है कि राजनीतिक लाभ के लिए बड़ी-बड़ी बातें करने वाले लोग या तो यथार्थ से अपरिचित हैं या अनजान बने रहते हैं।

यूपीए सरकार ने जब कैश सब्सिडी योजना की, विपक्षी हमले के बाद जिसका नाम बदलकर अब प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण कर दिया गया है, घोषणा की थी, तभी साफ हो गया था कि चुनावी लाभ के लिए इस योजना की रूपरेखा भले ही खींची गई हो, पर इसे लागू करना, वह भी इतनी जल्दी, व्यावहारिक नहीं है। लेकिन इससे बेपरवाह सरकार इसे शुरू करने के लिए इतनी उत्साहित थी कि उसे आचार संहिता की भी याद नहीं रही थी! अब नए साल में उसने बीस जिलों में यह योजना शुरू भी की है, तो इसमें केरोसीन, रसोई गैस, खाद्यान्न और उर्वरक की सब्सिडी शामिल नहीं है।

फिलहाल अगर इस योजना के तहत छात्रवृत्ति, मातृत्व सहायता और कन्याश्री बीमा वगैरह का लाभ ही देना था, तो इतने धूम-धड़ाके की क्या जरूरत थी? ये ऐसी सब्सिडी नहीं हैं, जिनमें ज्यादा फर्जीवाड़ा होता हो। फिर लोगों को ये लाभ तो पहले से मिल रहे थे। नया इसमें यदि कुछ है, तो यही कि स्कूलों या पंचायतों में जानेवाली राशि सीधे लाभार्थियों के खाते में जाएगी। पर इसमें भी आधार कार्ड की बाध्यता नहीं है।

यानी अब सरकार की समझ में आ गया है कि दूरस्थ ग्रामीण इलाकों में जहां अनेक गरीब परिवारों के बैंक खाते नहीं हैं, वहां आधार की शर्त लागू करना बेतुका ही है। सिर्फ यही नहीं कि खाद्यान्न, उर्वरक, केरोसीन और रसोई गैस को शामिल किए बगैर इस योजना का कोई महत्व नहीं है, यह भी कि खाद्यान्न सब्सिडी के बजाय नकदी देने का मामला इतना आसान भी नहीं है।

तब तो और नहीं, जब छत्तीसगढ़ सरकार ने खाद्य सुरक्षा कानून में राज्य की करीब 90 फीसदी आबादी को शामिल किया है। इसी तरह सस्ते किरासन के बजाय नकदी देने की योजना को हमने पायलट परियोजना में ही ध्वस्त होते देखा है। ऐसे में लाजिमी यही है कि लोकलुभावन राजनीति से बाहर निकला जाए, पर सरकार से इसकी उम्मीद तो कम ही है।

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