यूपी में कम होती नहीं दिख रहीं भाजपा की मुसीबतें

लखनऊ
‘अटल शंखनाद’ रैली की सफलता को लेकर गद्गद भाजपा की राह में मुसीबतें कम होती नहीं दिख रही हैं। अतीत के अनुभव और रैली में आए कार्यकर्ताओं की नेताओं की एकजुटता पर आशंका इन मुसीबतों का संकेत दे रही हैं। योगी आदित्यनाथ और वरुण गांधी जैसे नेताओं ने रैली से गैरहाजिर रहकर पार्टी के भीतर खींचतान कम या खत्म न होने की बानगी दे दी है। भले ही इसकी वजह कुछ भी बताई जाए।

भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष डा. लक्ष्मीकांत वाजपेयी ने रैली से एक दिन पहले ही यह बता दिया हो कि पारिवारिक वजहों से पूर्व प्रदेश अध्यक्ष केशरीनाथ त्रिपाठी और ओमप्रकाश सिंह रैली में नहीं रहेंगे, लेकिन किसी के गले से यह बात नीचे नहीं उतर रही है कि रैली में न आ पाने की वजह सिर्फ यही है।

टीम गठन, प्रत्याशी चयन जैसे कुछ और काम भी आने वाले समय में भाजपा के लिए मुसीबतों की भारी गठरी लिए इंतजार कर रहे हैं। भाजपा एकजुटता का लाख दावा करे लेकिन इन कामों में सारे नेताओं को एक साथ रखना और उस पर भी सबको खुश रख पाना बहुत संभव नहीं दिख रहा है।

टीम गठन और प्रत्याशियों के चयन का पेंच
रैली के बाद अब सबसे पहले प्रदेश भाजपा की नई टीम का गठन होना है। इसके बाद लोकसभा चुनाव के लिए प्रत्याशियों का चयन होना है। दोनों ही काम बहुत आसान नहीं है। पिछले एक दशक पर नजर डालें तो यह साबित भी हो जाता है। टीम का गठन और प्रत्याशियों का चयन भाजपा में हमेशा एक नया गुट खड़ा करता रहा है। इसका नतीजा जिलों के कार्यकर्ताओं में गुटबाजी खड़ी करके चुनाव में प्रत्याशियों के लिए मुसीबत के रूप में सामने आता रहा है।

गुटबाजी
जाहिर है कि इस बार भी टीम गठन में पार्टी का हर बड़ा नेता अपने लोगों का समायोजन चाहेगा। दिल्ली में बैठे लोग भी हस्तक्षेप करेंगे। पार्टी में आए कल्याण सिंह और उनके पुत्र राजवीर सिंह राजू भैया की भी कोशिश होगी कि उनके साथ भाजपा के भीतर-बाहर होने वाले लोगों में भी कुछ का संगठन में सम्मानजनक समायोजन हो जाए। कल्याण के बाहर रहते भले ही टीम गठन में सोशल इंजीनियरिंग का बहुत हस्तक्षेप न हो पाया हो लेकिन अब यह बहुत मुश्किल है।

लोकसभा चुनाव के लिए प्रत्याशियों के चयन में भी यह समस्या खड़ी हो सकती है। कल्याण, अपनी शक्ति को साबित करने के लिए प्रत्याशियों के चयन और टीम का गठन अपने मानदंडों पर कराना चाहेंगे। पर, वर्ष 2004 का लोकसभा और 2007 का विधानसभा चुनाव बताता है कि यहीं से नया टकराव भी खड़ा हो सकता है। इन दोनों में कल्याण ने दलबदलुओं, दागियों और लगातार चुनाव हारने वालों को टिकट न देने का सार्वजनिक सुझाव दिया था।

कल्याण ने यह भी ऐलान कर दिया था कि भाजपा अगर इस तरह की छवि वाले किसी व्यक्ति को टिकट दे भी दे तो कार्यकर्ता उसे हरा दें। पर, टिकट घोषित हुए तो दागी व दलबदलू चेहरे प्रत्याशियों की सूची में शामिल थे। चुनाव प्रचार के दौरान भी भाजपा नेताओं ने कल्याण की उपेक्षा की। नतीजा कल्याण के आने का लाभ तो भाजपा को मिला नहीं उल्टे कल्याण समर्थक एक नया गुट और खड़ा हो गया।

कल्याण तो भाजपा से अलग हो गए लेकिन भाजपा उनके समर्थकों व विरोधियों में बंट गई। वर्ष 2002 के चुनाव नतीजों में भाजपा की आधी सीटें रह जाने के बाद तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष कलराज मिश्र ने तो खुद ही सार्वजनिक रूप से वर्चस्व और अपने लोगों को पद-प्रतिष्ठा दिलाने की होड़ में कुछ नेताओं द्वारा भाजपा में ऊपर से नीचे तक गुटबाजी बढ़ाने की बात कही थी।

भाजपा के संगठनात्मक ढांचे को खड़ा करने में प्रारंभिक दिनों में योगदान करने वाले एक पूर्व संगठन मंत्री भी जो कुछ कहते हैं, उससे भी रैली से बने माहौल को लोकसभा चुनाव तक बनाए रखना पार्टी के लिए बहुत आसान नहीं दिख रहा है। यह कहते हैं कि दिल्ली वालों की उत्तर प्रदेश में बढ़ती दिलचस्पी और कुछ जनाधारविहीन नेताओं की संगठन पर कब्जा करने की कोशिश भी बड़ी वजह है। दिल्ली वालों ने कभी उत्तर प्रदेश में अपना गुट खड़ा करने के लिए कुछ नेताओं की पीठ ठोंक दी तो कभी अपनों को टिकट दिलाने के लिए यूपी के नेताओं के कंधे पर बंदूक रख दी।

विधानसभा चुनाव के दौरान बाबू सिंह कुशवाहा, बादशाह सिंह जैसों को भाजपा में अचानक उदय इसका प्रमाण है। ऐसे में समझा जा सकता है कि रैली की सफलता, कल्याण की घर वापसी और मंच पर नेताओं के एक से जुड़े दूसरे हाथ ही भाजपा की मुसीबतें खत्म हो जाने की गारंटी नहीं हैं।

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