कश्मीर पर एक सीमा से ज्यादा पाकिस्तान के साथ नहीं जा सकता है चीन

इमरान खान-शी जिनपिंग (फाइल फोटो)
इमरान खान-शी जिनपिंग
जम्मू-कश्मीर के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बंद कमरे की बैठक में भले ही चीन ने पाकिस्तान का साथ दिया है, लेकिन एक सीमा के आगे चीन इस मुद्दे पर भारत के खिलाफ बहुत दूर तक नहीं जा सकता है। चीन को इस मामले में अपनी सीमाओं और विवशता का अहसास है, इसीलिए चीनी नेतृत्व चाहता है कि कश्मीर मसले को भारत और पाकिस्तान आपसी बातचीत और सहमति से ही सुलझा लें।

क्योंकि भारत-पाकिस्तान के बीच बढ़ रहा तनाव अगर किसी तरह के संघर्ष का रूप लेता है तो उससे पूरे दक्षिण एशिया की शांति और विकास पर असर पड़ेगा, जिससे चीन की विकास यात्रा में भी बाधा पड़ सकती है। साथ ही आम चीनी जनता का रुख पाकिस्तान की अपेक्षा भारत के पक्ष में ज्यादा है और लोग भारत को एक जिम्मेदार पड़ोसी देश मानते हैं।

भारत चीन उच्चस्तरीय मीडिया फोरम में बतौर प्रतिनिधि शामिल होने और करीब एक सप्ताह की चीन यात्रा के दौरान चीनी कूटनीतिकों, मीडिया दिग्गजों और थिंक टैंकों के सदस्यों के साथ हुई औपचारिक चर्चा और अनौपचारिक बातचीत में इसके स्पष्ट संकेत मिले कि चीन अब 1965 और 1971 की तरह भारत के विरोध में पाकिस्तान के साथ खुलकर खड़ा नहीं होना चाहता है।

चीन की जनता, वहां का मध्यम वर्ग और बौद्धिक समाज भारत की दोस्ती की कीमत पर पाकिस्तान का साथ दिए जाने के पक्ष में नहीं है। बीजिंग में हुए दोनों देशों के मीडिया फोरम में सभी वक्ताओं ने इस बात पर जोर दिया कि एशिया और विश्व के विकास के लिए ड्रैगन और हाथी का गले मिलना बेहद जरूरी है।

इस बात पर सहमति बनी कि दोनों देशों के बीच सीमा विवाद, सैनिकों की घुसपैठ और डोकलाम जैसे संवेदनशील मुद्दों पर भारत और चीन दोनों की मीडिया को युद्धोन्माद नहीं बल्कि संतुलित और स्थिति को सुधारने की दिशा में सहायक होने वाली रिपोर्टिंग की जानी चाहिए।

चीन के प्रमुख समाचार पत्रों चाइना डेली, ग्लोबल टाइम्स, पीपुल्स डेली और प्रमुख टीवी न्यूज चैनल सीसीटीएन के संपादकों ने माना कि डोकलाम विवाद के समय दोनों तरफ के मीडिया ने कुछ अतिरंजित रिपोर्टिंग की थी, जिसे भविष्य में दोहराया नहीं जाना चाहिए।
फोरम में शामिल हुए अमर उजाला समेत अन्य भारतीय मीडिया प्रतिनिधियों ने भी इससे सहमति जाहिर की। साथ ही वक्ताओं में यह सहमति भी बनी कि एक दूसरे देशों से जुड़ी जानकारी और समझ के लिए पश्चिमी देशों के स्रोतों और मीडिया पर निर्भर रहने की बजाय सीधे संवाद और संपर्क करके तथ्यों को समझना चाहिए।

चीन के पूर्व राजनयिकों, जिनमें कुछ भारत में भी राजदूत या दूतावास में वरिष्ठ पदों पर रह चुके हैं, से हुई बातचीत से यह संकेत मिले कि चीनी सत्ता प्रतिष्ठान अब भारत के साथ किसी भी तरह के टकराव के पक्ष में नहीं है, सीधे टकराव के तो बिल्कुल भी नहीं।

सीमा विवाद पर तो भारत में तैनात रहे चीन के एक पूर्व राजदूत, जो खुद सीमा विवाद पर होने वाली तीन दौर की बातचीत में शामिल रह चुके हैं, ने खुलकर कहा कि उनकी निजी राय है कि भारत और चीन के बीच सीमाओं की जरूरत ही नहीं है। उन्होंने कहा कि यह सीमाएं अंग्रेजों ने बंद कमरे में निर्धारित की और दोनों देशों को विवाद में उलझा दिया।

जबकि प्राचीन काल में दोनों देशों से विद्वान, बौद्ध भिक्षु, व्यापारी बेरोकटोक आते जाते थे। चीन सरकार में वरिष्ठ पद पर तैनात एक राजनयिक ने नाम न छापने के अनुरोध के साथ कहा कि चीन अब अपने किसी भी पड़ोसी देश के साथ विवाद और संघर्ष में उलझना नहीं चाहता। उसे अपने देश के विकास और लोगों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने की फिक्र है।

इसे अगर चीन का स्वार्थ माना जाए तो कोई हर्ज नहीं है। ये हमारा स्वार्थ है कि हम अपने लोगों के जीवन स्तर को गरीब से निकाल कर उसे विकसित देशों के स्तर तक ले जाएं। इस राजनयिक ने कहा कि दक्षिण एशिया में शांति क्षेत्र और चीन के विकास की पहली शर्त है और इसलिए चीन को इस क्षेत्र में शांति बनाए रखने की चिंता है।

कश्मीर के मुद्दे पर चीन के रुख को लेकर चीनी राजनयिकों और बौद्धिक वर्ग का मानना है कि यह विवाद भारत-पाकिस्तान की बातचीत से ही सुलझेगा। किसी तीसरे पक्ष के दखल की इसमें कोई गुंजाइश नहीं है। मसूद अजहर के मामले में चीन की अडंगेबाजी को नरम रुख में बदलने को भी चीनी राजनयिक भारत के साथ अपने देश की बढ़ती नजदीकी का संकेत बताते हैं।

लेकिन एनएसजी यानी न्यूक्लियर आपूर्ति समूह में भारत के प्रवेश पर उनका कहना है कि यह द्विपक्षीय मुद्दा नहीं है। भारत ने एनपीटी (परमाणु अप्रसार संधि) पर दस्तखत नहीं किए हैं, इसलिए एनएसजी के नियम उसके प्रवेश की इजाजत नहीं देते।

चीनी राजनयिक और मीडिया दिग्गज कहते हैं कि कुछ विवाद के बिंदुओं के बावजूद दोनों देशों के बीच आर्थिक कूटनीतिक रणनीतिक और सांस्कृतिक संबंध इतने मजबूत होते जा रहे हैं कि एशिया के ये दोनों बड़े देश परस्पर टकराव नहीं बल्कि सहयोग की दिशा में बढ़ रहे हैं और धीरे धीरे विवादित मुद्दे समय के साथ कमजोर हो जाएंगे।

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