हेपेटाइटिस सी, बरसों तक अबूझ पहेली बना रहा वैज्ञानिकों ने इस तरह खोज निकाला

हेपेटाइटिस सी, बरसों तक अबूझ पहेली बना रहा वैज्ञानिकों ने इस तरह खोज निकाला

1976 में जब हेपेटाइटिस बी के लिए पुरस्कार दिया जा रहा था तो उस वक्त आल्टर और उनके साथी हेपेटाइटिस मरीजों पर कर रहे थे अज्ञात वायरस पर अध्ययन
विस्तार
इस साल का चिकित्सा का नोबेल अमेरिकी वैज्ञानिकों हार्वे जे आल्टर, चार्ल्स एम राइस और ब्रिटिश वैज्ञानिक माइकल हफ्टन को हेपेटाइटिस सी वायरस की खोज के लिए दिए जाने की घोषणा की गई। हालांकि, बरसों तक यह वायरस वैज्ञानिक समुदाय के लिए रहस्यमय एजेंट बना रहा। इसकी वजह से नया खून चढ़ाए जाने के बाद भी ऐसे मरीजों में सुधार नहीं हो रहा था।

दरअसल, 1940 के दशक में ही यह साफ हो गया था कि दो तरह की संक्रामक हेपेटाइटिस होती है। पहली हेपेटाइटिस ए, जो दूषित पानी या खाने से होती है और दूसरी खून और शरीर के अन्य द्रवों में संक्रमण से होती है। 1967 में अमेरिकी वैज्ञानिक बारूच ब्लूमबर्ग ने बताया कि खून के जरिये फैलने वाला वायरस हेपेटाइटिस बी है, जो पीलिया की वजह भी है। इस खोज के बाद इस बीमारी की जांच और प्रभावी टीके के विकास में मदद मिली। ब्लूमबर्ग को इस खोज के लिए 1976 में चिकित्सा का नोबेल भी दिया गया था।
जब यह पुरस्कार दिया जा रहा था, उसी वक्त हार्वे जे आल्टर अमेरिकी राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान में हेपेटाइटिस के उन मरीजों पर अध्ययन कर रहे थे, जिन्हें नया खून चढ़ाया गया था। जांच में हेपेटाइटिस बी में कमी तो देखी गई, मगर बड़ी संख्या में हेपेटाइटिस के मामले बने रहे। फिर हेपेटाइटिस ए के संक्रमण की जांच की गई, मगर नतीजों से यह पता चला कि इसके पीछे हेपेटाइटिस ए जिम्मेदार नहीं है। अब यह अज्ञात संक्रामक एजेंट कौन है, इसे लेकर वैज्ञानिकों में खलबली मच गई।
इंसान के बजाय चिंपैंजी में चढ़ाया गया संक्रमित खून, तब दिखी उम्मीद की किरण
इसके बाद हेपेटाइटिस मरीजों के खून को इंसान के बजाय किसी चिंपैंजी में चढ़ाया गया। कई अध्ययनों के बाद आल्टर और उनके साथियों ने पाया कि हेपेटाइटिस ए और बी के अलावा भी कोई और तरह का वायरस है जो संक्रमण के लिए जिम्मेदार है। इसे तब गैर ए और गैर बी हेपेटाइटिस नाम दिया गया।

जब माइकल ने वायरस की पूरी कुंडली ही खोज निकाली
इस जानकारी के बाद वैज्ञानिकों ने हेपेटाइटिस सी के बारे में पता लगाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। मगर, परंपरागत तौर तरीके इस वायरस पर असर नहीं करते और यह वैज्ञानिकों को बरसों तक चकमा देता रहा। बरसों तक इसने खुद को अलग-थलग रखा। 1989 में एक दवा कंपनी शिरोन के लिए काम करने वाले वैज्ञानिक माइकल हफ्टन ने इस वायरस की पूरी कुंडली निकालने की ठान ली। उन्होंने वायरस की जीन संरचना को खोजा। यह काम उन्होंने संक्रमित चिंपैंजी के खून में मिले न्यक्लिक एसिड से डीएनए के टुकड़ों को जुटाकर किया। जब इन टुकड़ों का अध्ययन किया गया तो पता चला कि इनमें से कुछ तो चिंपैंजी के थे, मगर कुछ तब तक अज्ञात रहे इस वायरस हेपेटाइटिस सी के भी थे।

डेंगू और यलो फीवर जिस परिवार के, उसी के हेपेटाइटिस सी वायरस भी
माइकल ने देखा कि इस अज्ञात वायरस के खिलाफ मरीजों में एंटीबॉडी बनने लगी। वैज्ञानिकों को जांच के दौरान इस वायरस का एक पॉजिटिव क्लोन भी मिला। कई और अध्ययनों के बाद यह पाया गया कि यह क्लोन फ्लैवी वायरस परिवार से जुडे़ आरएनए वायरस से निकला है। इस परिवार से वेस्ट नाइल, डेंगू और यलो फीवर वायरस भी जुडे़ हैं। तब इसे हेपेटाइटिस सी नाम दिया गया। मरीज के शरीर में पाई जाने वाली एंटीबॉडी ने इस बात पर मुहर लगाई कि मरीज में कोई न कोई अज्ञात वायरस है।

 

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